इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज (आईजीएमसी) के कम्युनिटी मेडिसिन विभाग के किए अध्ययन ने शिमला जिले की किशोरियों में मासिक धर्म से जुड़ी जागरुकता, स्वच्छता और सामाजिक प्रतिबंधों की वास्तविक तस्वीर पेश की है। अध्ययन में सरकारी स्कूलों की 10 से 19 साल की 5,433 छात्राओं को शामिल किया गया है। अध्ययन में सबसे चिंताजनक पहलू है कि 83.4 प्रतिशत लड़कियां मासिक धर्म के दौरान मंदिर नहीं जातीं। 53.3 प्रतिशत रसोई में प्रवेश या खाना नहीं बनातीं। 46.8 प्रतिशत अलग कमरे में रहती हैं। 66.5 प्रतिशत किशोरियां सामाजिक समारोहों से दूर रहती हैं।
53.9 प्रतिशत को खट्टे या मसालेदार भोजन से परहेज करने को कहा जाता है। शोध में यह बात भी सामने आया है कि कम आय वाले परिवारों और कम शिक्षित अभिभावकों की बेटियों पर इन प्रतिबंधों का प्रभाव अधिक है। सकारात्मक बात यह रही कि 81.3 प्रतिशत किशोरियों ने मासिक धर्म से जुड़ी समस्याओं के लिए किसी से परामर्श लिया और इनमें से 77.8 प्रतिशत ने डॉक्टर या नर्स को प्राथमिकता दी। 14.4 प्रतिशत ने दवा ली, 4.4 प्रतिशत पारंपरिक उपचारों का सहारा लेती हैं। आधी लड़कियों को यह जानकारी थी कि कब डॉक्टर से संपर्क करना आवश्यक है। यह अध्ययन आईजीएमसी के डॉ. कुसुम गुप्ता, डॉ. रश्मि शर्मा, डॉ. गगनदीप कौर, डॉ. रमेश चंद, और डॉ. एसएस नेगी के किया है।
अध्ययन ने स्पष्ट किया कि शिमला की किशोरियां मासिक धर्म के विषय में पहले से अधिक जागरूक और आत्मविश्वासी हैं। स्वच्छता की स्थिति भी राष्ट्रीय औसत से बेहतर है। लेकिन धार्मिक व सांस्कृतिक वर्जनाओं की जड़ें अब भी गहरी हैं। स्कूलों में विज्ञान आधारित स्वास्थ्य शिक्षा, माता-पिता की भागीदारी और सामुदायिक संवाद के जरिये इन सामाजिक बाधाओं को धीरे-धीरे कम किया जा सकता है। जिन परिवारों में माता-पिता शिक्षित और आय अधिक थी, वहां लड़कियों की जानकारी, स्वच्छता बेहतर थी। उच्च वर्ग की छात्राओं में सेनेटरी पैड का उपयोग और सुरक्षित निपटान की दर अधिक पाई गई। कम शिक्षित परिवारों में अंधविश्वास और धार्मिक पाबंदियां अधिक थीं। महिला अधिकार कार्यकर्ता चेतना शर्मा का कहना है कि मासिक धर्म को लेकर अब भी गहरी चुप्पी और भ्रांतियां हैं, जिन्हें तोड़ना बेहद जरूरी है। धार्मिक और परंपराओं के नाम पर महिलाओं को मंदिरों या सामाजिक गतिविधियों से दूर रखना भेदभाव है।
जानकारी और जागरुकता में सुधारः 92.1 प्रतिशत किशोरियों को पहली माहवारी से पहले ही इसकी जानकारी थी और 84.8 प्रतिशत ने यह जानकारी अपनी माताओं से प्राप्त की। लगभग 78.4 प्रतिशत ने माना कि मासिक धर्म एक शारीरिक प्रक्रिया है, लेकिन अब भी करीब 20 प्रतिशत लड़कियों में इसको लेकर भ्रम बना हुआ है। एचपीयू में मनोविज्ञान के प्रोफेसर और समाजशास्त्री रोशन जिंटा ने बताया कि आज मासिक धर्म जैसे प्राकृतिक विषयों पर धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतिबंध लड़कियों की प्रगति में बाधा डालते हैं। माता-पित्ता, स्कूल और समुदाय मिलकर जागरूकता बढ़ाएं और सामाजिक अंधविश्वास को दूर करें।